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Showing posts from March, 2011

गाँव से शहर तक

भुलवा भूल कर सब कुछ  कि कैसे कैसे  काटे दिन  राजधानी में,  कि कैसे कैसे करती रही चुम्बन प्रेमिका की तरह अपने आगोश में भरकर, उठती गिरती सीमेंट  और बालू की  श्याही....  कैसे कैसे बिखरते रहे  रोज सुबह और शाम के बीच झूलते  उसके बुने हूए सपने,  कि कर सके जुगाड़ एक अदद  आशियाने की, जो अब तक विस्मृत नहीं हुई  है  उसके सपनो से, कि अब जब की  जीवन व्यस्त है लिखने में  अंतिम अध्याय  भुलवा का, सुनकर  चौंक जाता है  जब कर सीना चौड़ा बोलता है  उसका अपना ही खून  कि ,  हम हैं शहरी बाबू  हमको आता है  excuse मी और thank यू... तभी तिलमिला कर भुलवा बोला  कि  क्या,  अंग्रेजी ने दे दिया flyover से भी  छोड़कर जाने का अद्भूत ज्ञान, और चले आये तुम बनके  रास्ता शहर और गाँव के बीच का , कह दो इस अंग्रेजी से कि , नहीं चाहिए हमें  रास्ते गाँव से शहर के,  हमे चाहिए  एक आशियाना  जहाँ  हो रास्तों का अंत......                                            "लाल बहादुर पुष्कर"   

पसीना

कोई क्यों बहाए पसीना कमाने के लिए पैसा, क्या पसीना होता है  सिर्फ पैसे का प्रतीक , या और भी है कोई बात  इस पसीने में  क्यूँ यह अदभूत मिलन  शीतल वायु के स्पर्श पर  देता है ठंडक मन और मस्तिस्क को ... सोचता हूँ  क्यूँ भाग जाता है , पसीने की मिठास से  मुसाफिर चलते चलते अक्सर,  क्यूँ नहीं रुक कर सोचता एक बार  कि बहाकर  पसीना ही बनता  है , आदमी  आदमियत की जिन्दा मिशाल, हाँ अब समझ में आता है  कि बहुत गहरा रिश्ता है  मेहनत का पसीने से , और यह भी सच है  की सच्ची मेहनत और  पसीना  मांगता है बड़े त्याग ......                                               "लाल बहादुर पुष्कर"