गाँव से शहर तक
भुलवा भूल कर सब कुछ कि कैसे कैसे काटे दिन राजधानी में, कि कैसे कैसे करती रही चुम्बन प्रेमिका की तरह अपने आगोश में भरकर, उठती गिरती सीमेंट और बालू की श्याही.... कैसे कैसे बिखरते रहे रोज सुबह और शाम के बीच झूलते उसके बुने हूए सपने, कि कर सके जुगाड़ एक अदद आशियाने की, जो अब तक विस्मृत नहीं हुई है उसके सपनो से, कि अब जब की जीवन व्यस्त है लिखने में अंतिम अध्याय भुलवा का, सुनकर चौंक जाता है जब कर सीना चौड़ा बोलता है उसका अपना ही खून कि , हम हैं शहरी बाबू हमको आता है excuse मी और thank यू... तभी तिलमिला कर भुलवा बोला कि क्या, अंग्रेजी ने दे दिया flyover से भी छोड़कर जाने का अद्भूत ज्ञान, और चले आये तुम बनके रास्ता शहर और गाँव के बीच का , कह दो इस अंग्रेजी से कि , नहीं चाहिए हमें रास्ते गाँव से शहर के, हमे चाहिए एक आशियाना जहाँ हो रास्तों का अंत...... "लाल बहादुर पुष्कर"