Posts

Showing posts from April, 2011

आज की सच्चाई

सांचे पहले से बने है तुम केवल अपना नाप दो// बहस मत करो जो लिखा है श्यामपट पर बस उसे छाप दो// लिखा होगा कहीं  कि शिक्षा में छिपी नैतिकता है तुम्हे चाहिए कौन सी डिग्री बस उसका दम दो// ज़माने में गर टिकना है तुम्हे, तो ज़माने को समझ नहीं तो अपनी जबान को लगाम दो //  क्यों वकालत करता फिरे  बुद्ध ,जैन उपदेश की  आज का सच है यही  ये बात तुम जान लो ,,,,,,,,,,,,,                                                          ''लालू "

आंकड़े और गरीब

वे समझ नहीं पाते कि वे आंकड़े है या गरीब, जब देखो छपती रहती है रिपोर्टें   अख़बारों में, होतें रहते है बड़े-बड़े सेमिनार  कि करना है इन आंकड़ो को कम आखिर, यह आंकड़ा मापता क्या है  उनकी गरीबी, कि मौसम का तापमान जो कभी कम होता तो कभी बढ़ता, ली जाती है शपथ  हर साल पंद्रह अगस्त को कि अब कोई नहीं रहेगा गरीब  इस देश में, आखिर वे कब तक रहेंगे बंधक  अपने देश ही में, आखिर कब मिटेगी  सभी बुराइयों की जड़ जिसने फैला रखा है पैर चारों तरफ  करना होगा ख़त्म  आंकड़ो की बाजीगरी, देना होगा  हर हाथों को काम, जिससे वे कह सकें कि अब हम आजाद है  पूरी तरह,,,,,,,,,,,,,,,,                                    '' लालू ''

उत्तर-आधुनिकता

अब तो आदत सी हो गयी है अपने आपको न पहचानना, कि शाम को आखिर दिन क्यों कहता हूँ मै कहीं मै कट तो नहीं गया  अपनी स्वाभाविकता से, मुझे क्यूँ लगता है कि  बल्ब की रोशनी ही मेरे लिए  सूर्य-सा है  मै क्यूँ कहता हूँ बार-बार  कि मेरे कमरे का सूरज  रात में ही उगता है  जब सोते है लोग अपनी नियमित दिनचर्या में,,,,, मुझे आज भी याद है वो बचपन में सुबह उठना सूरज के साथ-साथ  उस पीली रोशनी के साये में  शुरू करता था अपना दिन जैसे ही वह जाता उसके जाने का गम  न झेल पाता और  जल्दी ही उसके आने के इन्तजार में पुनः सो जाता,,,,,, लेकिन उसकी फिक्र नहीं है मुझे आज, क्योंकि मै उस जड़ सूरज से कहीं आगे निकल आया हूँ  आज मै कई ऐसी चीजों को, छोड़ आया हूँ पीछे जो शायद मुझसे गए हैं हार या खड़े है इस  इस इन्तजार में, कि  मै लौटूंगा इस अंधी दौड़ की प्रतियोगिता से,,,,, उनका इन्तजार सही है, या मेरा दौड़ना और मै ये भी नहीं कह सकता कि वे गलत है या सही,, लेकिन इतना तो महसूस होता है कि इस उत्तर-आधुनिकता ने बहुत कुछ छीना है मुझसे ,,,,,,,,,,,,,,,,,                                                    ''लालू ''

अभी-अभी

आया था इस  नयी दुनिया में  अभी-अभी, उसने देखा कि सब कुछ वैसा नहीं है, जैसा की उसने सोचा था/ जहाँ गाव की छोटी-छोटी  इतराती हुई  पग्दंदिया  उसके सपने में रोज़ आती थी कहाँ यहाँ सड़कें हैं कि, ख़त्म होती ही नहीं  आँखें थक जाती है देखते-देखते  गाड़ियों की सरसराहट को, गिनती ख़त्म नहीं होती  उसकी भूल जाता है बीच में ही, कि वहा कहाँ था ,,,,,,,,,,,,,,,,,,                                                  "लाल बहादुर पुष्कर"

अभी-अभी

आया था इस  नयी दुनिया में  अभी-अभी, उसने देखा कि सब कुछ वैसा नहीं है, जैसा की उसने सोचा था/ जहाँ गाव की छोटी-छोटी  इतराती हुई  पग्दंदिया  उसके सपने में रोज़ आती थी कहाँ यहाँ सड़कें हैं कि, ख़त्म होती ही नहीं  आँखें थक जाती है देखते-देखते  गाड़ियों की सरसराहट को, गिनती ख़त्म नहीं होती  उसकी भूल जाता है बीच में ही, कि वहा कहाँ था ,,,,,,,,,,,,,,,,,,                                                  "लाल बहादुर पुष्कर"

कूड़ों का ढेर

बड़ी तल्लीनता से निहारता  उस ओर, जिस ओर से आ रहा होता  कूड़ों का ढेर, उछल पड़ता था देखकर उन कूड़ों को, जिसमे होते थे, कुछ  प्लास्टिक के टुकड़े  जुट जाता था सुबह-सुबह अलग करने के लिए, उन कूड़ों  के ढेरों को जिसमे छुपी होती थी  उसकी रोजी रोटी,,,,,,,,,,,,,,                                              "लाल बहादुर पुष्कर"

मुझे तो समृद्ध भारतवर्ष चाहिए

न कोई मरे भूख से , न कोई रहे बेकार  और न ही कोई अपकर्ष चाहिए/ मुझे तो समृद्ध भारतवर्ष चाहिए // तोड़ दो दीवारें जाति-पाति की  बने सभी का धर्म मानवता, इसमे न कोई बेकार का संघर्ष चाहिए / मुझे तो समृद्ध भारतवर्ष चाहिए // हो कल्याण मानवता का विकसित हो सभी जन -जन , इसमे अपनी सभ्यता और  संस्कृति का मर्म चाहिए / मुझे तो समृद्ध भारतवर्ष चाहिए// नहीं अपनाना हमें विकास माडल चीन और अमरीका का, हमें अपनी ही मिट्टी से अपना उत्कर्ष चाहिए/ मुझे तो समृद्ध भारतवर्ष चाहिए//                                                        "लाल बहादुर पुष्कर"

आखिर क्यों ?

उसे जगना नहीं है नींद से सबेरा भले ही कितना सुहाना हो/ उसे सोना है, सोना है, बस सोना है आखिर क्यों ? वह कहता है आँखें नहीं खोलेगा  इस चमकते सुनहरे उजाले में जहाँ वह ठहर नहीं सकता  एक भी क्षण, आखिर वह क्यों भूल जाना चाहता है उन मस्ती के दिनों को  जब सारी दुनिया उसे हाथो पे बिठाये फिरती थी  धिक्कारता अपने आपको , अपने भाग्य को  आखिर वह क्यों  नहीं जगना चाहता                     इस नींद से, सोचते-सोचते   इसी कशमकश को   उसकी प्यारी और सुहानी शाम  पुनः आ जाती,,,,,,,,,,,,,,,,                                                      "लाल बहादुर पुष्कर"

कुछ तो सीखें

आखिर, वृक्षों ने कब किया मना  फल देने से, अरे, वे बेचारे तो  स्वयं  झुक जाते है पर, किसी का झुक जाना  उसकी बुश्दिली नहीं होती बल्कि, उसके बड़ेपन का होता है प्रतीक आखिर, हम क्यों मिटा रहे  उनकी हस्ती को , जिसे उन वृक्षों ने बड़ी तपस्या से पाया है  उनके झुकने से अगर, हम कुछ सीख सके तो सीखे, नहीं तो  खत्म हो जायेंगे धीरे-धीरे, वे सभी उदाहरण जो देते हैं सीख  मानव को,,,,,,,,,,,,,                                  "लाल बहादुर पुष्कर"      

चुनौती

दे रही चुनौती ठण्ड को,   उसके काम की गर्मी  ठण्ड की हालत है पस्त कि वह डिगाए उसे कैसे, कि लगने लगे सर्दी नहीं,  वह नहीं डिगेगा अपनी राह से, जो उसे देती है गर्मी, इसी गर्मी ने  रोक रखा है उसे  कि वह न समझे की वह ठण्ड से, क्यों रखता है बैर  इस तरह, शायद वह भूल जाना चाहता है  इस मौसम को, जान बूझकर आखिर,  उसका नकाब जो है  काम की गर्मी,,,,,,,,,,,                                       "लाल बहादुर पुष्कर"

मै क्यों हार रहा हूँ

क्यूँ  डगमगा रहे हैं मेरे कदम  इतनी ऊंचाई पर चढ़कर  मै थक गया हूँ क्या  इस लम्बी चढ़ाई से, बार-बार मेरा मन  स्वीकारने को हार, रहता उद्धत  आखिर क्यूँ मै खिच रहा हूँ  उस ओर जिस ओर मै जाना नहीं चाहता, क्यूँ तड़प उठता है मेरा मन  सोचकर उस क्षण को , कि जब मै हार चुका हूँगा अपने आपसे, आखिर क्यूँ  नहीं जुटा पाता साहस, उस हार को हराने  के लिए जो मुझे खींचती है, अपनी ओर आखिर क्यूँ ??                           'लाल बहादुर पुष्कर' 

अपनापन

मै बहुत ऊँचा ,बहुत ऊँचा बन जाता हूँ  मेहनत के बल पर अनंत शिखरों कों पाना लेना चाहता हूँ  लेकिन एक शर्त है इसकी  हे प्रभु,  मै जुड़ा रहूँ अपनी  जड़ो से  बस यही कामना चाहता हूँ  न हो सिर्फ बसंत बहार का मौसम  और न ही पतझड़ का रूखापन , मै तो सिर्फ अपनेपन का सदाबहार मौसम चाहता हूँ  भूलकर भी न पैदा हो अनदेखेपन का भाव मन में , हे प्रभु , गैरो कों भी गले लगा सकूँ , बस इतना सा भोलापन चाहता हूँ //                                                           "लाल बहादुर पुष्कर"  अपनापन