पूछता कागज कलम से

अब क्यों नहीं लिखती तू ,
पहले जैसे स्वतंत्र होकर
क्या हो गया है तुझे
बता न ,
पूछता कागज बड़ा गंभीर हो
कलम से,
क्या तेरी  धार  ख़तम हो चुकी
या बस दिखती है सुन्दर,
केवल आवरण में
क्या तेरी स्याही में भी मिलावट हो गयी
जो तुझे स्वस्थ नहीं रहने देती.
और बरगलाती है उल्टा-सीधा लिखवाती है
क्या सचमुच तू बीमार है,
किसी बीमारी से
या परेशान है अपनी लाचारी से,
आह! चल छोड़ ये बता
आजकल तू रहती है कहाँ ,
वहीँ न जहाँ
तू रहना चाहती है,
या वहां जहाँ तेरा दम घुटता है
जहाँ तुझसे जबरदस्ती लिखवाया जाता है,
उन दस्तावेजों को, जिसे लिखने से
तेरी आत्मा तुझे,
धिक्कारती है
तुझे शर्म नहीं आती
जब तू दौड़ती है रेस,
मेरे तन पर
मेरा रोयाँ रोयाँ सिहर,
उठता है कि
अरे तू पागल तो नहीं
हो गयी ,
ये क्या लिखती जा रही
बिना सिर पैर के,
पहले तू जब लिखती थी
तो उसका आशय , तर्क
रहता था शामिल,
आह! लगता है
तेरी बुद्धि को लग गया घुन
अरे तू विद्रोह क्यों
नहीं कर देती,
इस गुलामी से
कि नहीं लिखना मुझे
बेईमानी , भ्रस्टाचार, साम्प्रदायिकता
और वैमनस्यता के दस्तावेज,
कह दे,
अब मै आजाद होना चाहती हूँ
इन जंजीरों से,
और लिखना चाहती हूँ
एक ऐसा दस्तावेज
जो मिटा सके
दूरियां दिलों की ,,,,,लाल बहादुर पुष्कर   

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