किस्सा-ए-जुमला हर रोज़ हर पहर होती है; इन्हें सुन-सुन के शाम-ए-सहर होती है पलके झपकने लगती है यादों के; इन तरन्नुम को बेखबर सुनके मौका-ए-बदहवास कहाँ उम्रभर होती है,,,,,,,,,,,,, लाल बहादुर पुष्कर
तेरी काया से चिपका हुआ आखिर क्या है एक भटका हुआ मुसाफिर की तुझे बदरंग करता कोई कण जो हर क्षण बदलता रहता है अपना ठिकाना इसे क्यूँ नहीं मिलता एक आलंबन जिसमे वो बसा सके एक छोटी सी दुनिया क्या सचमुच आज इंसान धूल हो चूका है जो नहीं टिक पाता हैं अपने एक उदेश्य पर ..... 'लाल बहादुर पुष्कर"
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