मै क्यों हार रहा हूँ

क्यूँ  डगमगा रहे हैं
मेरे कदम 
इतनी ऊंचाई पर चढ़कर 
मै थक गया हूँ क्या 
इस लम्बी चढ़ाई से,
बार-बार मेरा मन 
स्वीकारने को हार,
रहता उद्धत 
आखिर क्यूँ मै खिच रहा हूँ 
उस ओर
जिस ओर
मै जाना नहीं चाहता,
क्यूँ तड़प उठता है
मेरा मन 
सोचकर उस क्षण को ,
कि जब मै हार चुका हूँगा
अपने आपसे,
आखिर क्यूँ 
नहीं जुटा पाता साहस,
उस हार को हराने  के लिए
जो मुझे खींचती है,
अपनी ओर
आखिर क्यूँ ??
                          'लाल बहादुर पुष्कर' 


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