उत्तर-आधुनिकता

अब तो आदत सी
हो गयी है अपने आपको
न पहचानना,
कि शाम को आखिर
दिन क्यों कहता हूँ मै
कहीं मै कट तो नहीं गया 
अपनी स्वाभाविकता से,

मुझे क्यूँ लगता है कि 
बल्ब की रोशनी ही
मेरे लिए  सूर्य-सा है 
मै क्यूँ कहता हूँ बार-बार 
कि मेरे कमरे का सूरज 
रात में ही उगता है 
जब सोते है लोग
अपनी नियमित दिनचर्या में,,,,,

मुझे आज भी याद है
वो बचपन में सुबह उठना
सूरज के साथ-साथ 
उस पीली रोशनी के साये में 
शुरू करता था अपना दिन
जैसे ही वह जाता
उसके जाने का गम 
न झेल पाता और 
जल्दी ही उसके आने के इन्तजार में
पुनः सो जाता,,,,,,

लेकिन उसकी फिक्र
नहीं है मुझे आज,
क्योंकि मै उस जड़ सूरज से
कहीं आगे निकल आया हूँ 
आज मै कई ऐसी चीजों को,
छोड़ आया हूँ पीछे
जो शायद मुझसे गए हैं हार
या खड़े है इस 
इस इन्तजार में, कि 
मै लौटूंगा
इस अंधी दौड़ की प्रतियोगिता से,,,,,

उनका इन्तजार सही है,
या मेरा दौड़ना
और मै ये भी नहीं कह सकता
कि वे गलत है या सही,,
लेकिन इतना तो महसूस
होता है कि इस उत्तर-आधुनिकता ने
बहुत कुछ छीना है मुझसे ,,,,,,,,,,,,,,,,,

                                                   ''लालू ''

Comments

Popular posts from this blog