तेरी काया से चिपका हुआ आखिर क्या है एक भटका हुआ मुसाफिर की तुझे बदरंग करता कोई कण जो हर क्षण बदलता रहता है अपना ठिकाना इसे क्यूँ नहीं मिलता एक आलंबन जिसमे वो बसा सके एक छोटी सी दुनिया क्या सचमुच आज इंसान धूल हो चूका है जो नहीं टिक पाता हैं अपने एक उदेश्य पर ..... 'लाल बहादुर पुष्कर"
बहुत प्रभावी रचना , बधाई.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.